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इराक हमला

अध्याय 1: युद्ध व तनाव के बीच शांति आंदोलन का बढ़ता महत्व

इराक पर संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन पर हमले से जहां विश्व में शानित और स्थिरता को बहुत नुकसान पंहुचा है, वहां यह भी सच है कि कुछ अमेरिकी दस्तावेजों से निकट भविष्य में युद्ध व हिंसा की संभावनाएं और भी अधिक बढ़ने के संकेत मिलते हैं। इस संदर्भ में 'प्रोजेक्ट फार न्यू एमेरिकन सैंचुरी (नर्इ शताब्दी के लिए अमेरिकी योजना) नामक ग्रुप द्वारा तैयार की गर्इ एक रिपोर्ट बहुत चर्चित रही है। इस ग्रुप या समूह के जो सदस्य थे वे आज अमेरिकी सरकार के उच्चतम पदों पर हैं व विशेषकर इराक के हमले की तैयारी में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी तरह वर्ष 2002 में सरकारी तौर पर जारी किया एक अन्य दस्तावेज 'संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति' भी चर्चा में आया है। इन दस्तावेजों का èयान से अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि संयुक्त राज्य अमेरिका की पूरी तैयारी अपने को विश्व की सबसे बड़ी शक्ति सदा के लिए बनाए रखने की है और इसके लिए उसे जहां से भी कोर्इ चुनौती महसूस होगी उस पर यह एकतरफा हमलावर कार्यवाही के लिए तैयार है। साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका की और भी नए और खतरनाक हथियार बनाने की तैयारी है। विश्व की महाशक्ति की यह सोच है तो इराक जैसे हमलों की संभावना बढ़ना स्वाभाविक ही है। इराक पर हमले के दौरान ही यह संभावना दुनिया में कर्इ जगह और बार-बार व्यक्त की जा रही थी कि इराक पर हमले के बाद किस पर हमला हो सकता है। इस सन्दर्भ में सीरिया, इरान, लेबनान, लीबिया, वेनेजुएला, उत्तरी कोरिया, क्यूबा, यहां तक कि सऊदी अरब जैसे मित्र सरकार वाले देश का नाम भी लिया गया है।

इस अधंकारमय माहौल में आशा की एक किरण जरूर दिखार्इ दी कि दुनिया में अनेक देशों में शांति आंदोलन ने बहुत जोर पकड़ा। यदि इस शांति आंदोलन ने समझदारी से आपसी समन्वय को बढ़ाते हुए समर्थन का व्यापक आधार प्राप्त किया तो युद्ध और हिंसा के संकट को कम करने में इससे बहुत सहायता मिल पाएगी।

जिस तरह का विरोध इराक पर हमला होने से पूर्व विश्व में अनेक स्तरों पर देखा गया, वैसा विश्व इतिहास में बहुत कम नजर आया है। वियतनाम युद्ध के विरोध ने वहां काफी तबाही होने के बाद जोर पकड़ा था, पर इस बार विश्व जनमत ने युद्ध आरंभ होने से पहले ही इसमें निहित अन्याय और इसके संभावित दुष्परिणामों को अच्छी तरह समझकर बहुत व्यापक विरोध किया। यदि इस विश्व जनमत को सार्थक शांति प्रयासों से जोड़ा जा सका तो युद्ध की विभीषिका को नियंत्रित करने की काफी उम्मीद बंधती है।

हमले के इस विरोध का एक स्तर वह था जहां विभिन्न सरकारों ने अपना विरोध प्रकट किया। युद्ध का समर्थन करने वाले प्रस्ताव के विरुद्ध इस बार सुरक्षा परिषद में तीन वीटो की संभावना फ्रांस, रुस और चीन की ओर से उपस्थित हो गर्इ थी। इन तीन देशों और जर्मनी का विरोध सबसे महत्वपूर्ण था पर उसके साथ उनके अपने कुछ महत्वपूर्ण हित भी जुडे़ थे। दूसरी ओर सुरक्षा परिषद के कुछ अस्थार्इ सदस्यों ने अमेरिकी दबाव और लालच दोनों से ऊपर उठने में जो गरिमा दिखार्इ वह और भी सराहनीय थी। सीरिया में पहले से इराक के बहुत से शरणार्थी आए हुए हैं, इनकी संख्या निकट भविष्य में कहीं बढ़ सकती है। सीरिया बुरी तरह से संयुक्त राज्य अमेरिका का कोपभाजन भी बन सकता है। इसके बावजूद उसने युद्ध के विरोध का अपना स्वतंत्रता और मुखर स्वर अवरुद्ध नहीं होने दिया। अफ्रीका के पहले से बहुत समस्याओं को झेल रहे कुछ देशों ने भी सुरक्षा परिषद में आसानी से घुटने नहीं टेके। संयुक्त राज्य अमेरिका के पड़ोसी कनाडा को महाशकित की बगल में रहने के कारण उसका अधिक विरोध न करने का विशेष ध्यान रखना पड़ता है, पर इस बार उसने अपने सिद्धान्त आधारित युद्ध के विरोध को काफी हद तक बुलंद रखा।

फ्रांस हमले के विरोध में उससे भी आगे आया जितनी उम्मीद थी। रुस ने कर्इ क्षेत्रों में अमेरिका पर अपनी बढ़ती निर्भरता पर ब्रेक लगाते हुए अपनी स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता को मुखर किया। विश्व के मामलों में फ्रांस, जर्मनी व रुस के आपसी समन्वय की तिकड़ी सामने आर्इ, जो विशेषकर चीन के सहयोग से संयुक्त राज्य अमेरिका की मनमानी पर रोक लगा सकती है, हालांकि इस समन्वय का आधार अभी विशेष मजबूत नहीं है।

कर्इ सरकारों के विरोध से भी कहीं अधिक उम्मीद बंधाने वाला युद्ध का वह जन-विरोध था जो लंदन, रोम, न्यूर्याक व दुनिया भर की सड़कों, पार्कों और सभा स्थलों में इन दिनों उमड़ता हुआ देखा गया। इस उमड़ते जन-विरोध को देखते हुए न्यूयार्क टाइम्स ने तो यहां तक कह दिया कि इस समय विश्व में दो महाशकितयां नजर आ रही हैं - एक संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दूसरा युद्ध के विरुद्ध उमड़ता जन-विरोध।

पंद्रह फरवरी का दिन विश्व स्तर के सबसे बड़े विरोध प्रदर्शनों के लिए याद किया जाएगा। इस दिन के बारे में उपलब्ध अनुमानों के अनुसार विश्व में एक हजार से अधिक स्थानों पर डेढ़ करोड़ से अधिक लोग युद्ध का विरोध करने के लिए एकत्र हुए। लंदन के विशाल जन-प्रदर्शन में आयोजकों की अपनी उम्मीदों से कहीं अधिक संख्या में लोग युद्ध के विरोध का अपना संदेश टोनी ब्लेयर तक पंहुचाने आए। इस विरोध प्रदर्शन में उपस्थित ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक जेरेमी सी ब्रुक ने इस लेखक को फोन पर बताया कि तमाम अन्य निराशा की घटनाओं के बीच इस विरोध प्रदर्शन ने बहुत उम्मीद जगार्इ है। उन्होंने बताया कि ब्रिटेन में इतना बड़ा विरोध प्रदर्शन कभी उन्होंने स्वयं न तो देखा था न इतने बड़े विरोध प्रदर्शन के बारे में सुना ही था। अन्य अनुमानों के अनुसार भी लगभग चौदह लाख नागरिकों की उपस्थिति का यह विरोध प्रदर्शन ब्रिटेन का सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन माना गया है। यही स्थिति रोम के विरोध प्रदर्शन की मानी गर्इ है जहां दस लाख से अधिक लोग युद्ध के विरोध के लिए एकत्रित हुए।

ध्यान देने योग्य बात है कि सबसे बड़े विरोध पश्चिमी जगत के उन देशों में हुए हैं जहां की सरकारों ने हमले में हिस्सेदारी या अधिक समर्थन व सहयोग का निर्णय लिया है। ब्रिटेन और इटली ऐसे ही देश हैं तथा सबसे बड़े प्रदर्शन लंदन और रोम में हुए। स्पेन में भी व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए हैं। न्यूयार्क में पुलिस द्वारा अनेक अवरोध उपस्थित करने के बावजूद लगभग पांच लाख लोगों ने अपना विरोध प्रकट किया।

इन विरोध प्रदर्शनों में बड़ी संख्या में ऐसे सामान्य नागरिकों ने हिस्सा लिया जो प्राय: राजनीतिक प्रदर्शनों में नजर नहीं आते हैं। इसका अर्थ यही लगाया जा रहा है कि इस युद्ध के महत्व और दुष्परिणामों को बहुत से लोगों ने समझ लिया है।

विशेषकर जो देश हमलावर भूमिका में या हमलावर के सहयोगी की भूमिका में हैं, वहां के जनसाधारण ने बड़ी संख्या में युद्ध के विरोध में सामने आकर एक बहुत महत्वपूर्ण संदेश दिया है। संदेश यह है कि दुनिया के लोगों को बांटने की तमाम तिकड़मों के बावजूद बड़ी संख्या में जन साधारण शांति प्रिय हैं और व्यर्थ का खून-खराबा नहीं चाहते हैं। वे नहीं चाहते हैं कि दूसरों को मार कर अपनी सुख-समृद्धि को बढ़ाया जाए। उन्होंने यह भी संदेश दिया है कि धर्म के आधार पर मुसलमान और र्इसार्इ का कोर्इ बुनियादी झगड़ा नहीं है, न ही भूगोल के आधार पर पूर्व और पशिचम का कोर्इ बुनियादी झगड़ा है। सभी लोग मिल-जुलकर रह सकते हैं और आपसी बातचीत से समस्याओं को सुलझा सकते हैं।

यदि ये युद्ध विरोधी प्रदर्शन न होते तो क्षेत्रा और धर्म के आधार पर नफरत कहीं गहरी हो जाती। इन विरोध प्रदर्शनों से दुनिया के अमनपसन्द लोगों ने एलान किया है कि धर्म और देश अलग हो सकते हैं पर हम सब को आपसी सहयोग और दोस्ती से रहना चाहिए। जिन्होंने विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया इससे कहीं अधिक संख्या में वे लोग हैं जो सड़क पर न आए हों पर युद्ध का विरोध अवश्य करते हैं। यदि युद्ध समर्थक शक्तिशाली निहित स्वार्थ अपने पक्ष में बहुत महंगा व भ्रामक प्रचार न करते तो युद्ध विरोधियों की संख्या निश्चय ही और भी अधिक होती। शानित आंदोलन व नए तौर-तरीकों के बारे में सोचना होगा जो शानितपूर्ण रहते हुए मात्रा विरोध प्रदर्शन या पदयात्रा से आगे पहुंच सकें। इस संबंध में महात्मा गांधी के प्रयोगों विशेषकर सत्याग्रह से काफी कुछ सीखा जा सकता है।

वियतनाम युद्ध के विरूद्ध संयुक्त राज्य अमेरिका में विशेषकर युवाओं विद्यार्थियों के जो विरोध प्रदर्शन हुए थे, उनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका मानी गर्इ है। संयुक्त राज्य अमेरिका के सरकारी अनुमानों के अनुसार वर्ष 1970 तक इस तरह के 1785 विरोध प्रदर्शनों को दर्ज किया गया। इतने व्यापक स्तर के युद्ध विरोध को उपेक्षित करना सरल नहीं है।

प्राय: शांति आंदोलन किसी भीषण युद्ध की सिथति या संभावना उत्पन्न होने पर ही सक्रिय होता है। इस से निरंतरता का अभाव रहता है और आंदोलन अधिक व्यापक नहीं बन पाता है। वर्ष 1982 में किसी युद्ध की स्थिति न होने के बावजूद न्यूयार्क के सेंट्रल पार्क में सोवियत संघ से तेज की जा रही शस्त्र दौड़ के विरोध में लगभग दस लाख अमेरिकी नागरिक एकत्र हुए थे। इसे अमेरिकी इतिहास का सबसे बड़ा राजनीतिक प्रदर्शन बताया गया हे। इससे पता चलता है कि युद्ध की स्थिति के बिना भी शांति के महत्वपूर्ण मुद्दों पर लोग बड़ी संख्या में आगे आ सकते हैं। लंदन और न्यूयार्क जैसे शक्तिशाली देशों के मुख्य नगरों में इतने बड़े शांति प्रदर्शनों के सफल आयोजन प्रेरणादायक हैं।

दूसरी ओर चीन और उत्तरी कोरिया जैसी खतरनाक हथियारों से लैस सरकारें ऐसे शांति प्रदर्शन नहीं होने देती हैं और इस कारण दूसरे पक्ष के शांति आंदोलन भी कमजोर होते हैं। अत: सभी देशों में शांति आंदोलन आगे बढ़ सकें इसके अनुकूल परिस्थितियां तैयार करना भी जरूरी है।

आज दुनिया में इतने विनाशक हथियार बन चुके हैं कि सभी मनुष्यों व जीवन के अधिकांश अन्य रूपों का संहार करने की क्षमता इन्होंने प्राप्त कर ली है। इस स्थिति में शांति आंदोलन को स्थार्इ तौर पर दुनिया के सभी देशों में सक्रिय रहना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस आंदोलन को भरपूर समर्थन मिलना चाहिए।

दक्षिण एशिया में निरंतर बढ़ते विनाशक हथियारों के जखीरे (जिनमें अणु हथियार भी सम्मिलित हैं) व यहां की सरकारों के परस्पर वैमनस्य को देखते हुए यहां शांति आंदोलन की जरूरत बहुत अधिक है। इस आंदोलन को आपसी नफरत व भ्रांतियों को दूर करने, आतंकवाद व शस्त्रों की दौड़ के विरुद्ध जनमत बनाने का महत्वपूर्ण कार्य निरंतरता से दक्षिण एशिया के सब देशों में करना चाहिए।

 

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